अध्याय ७

 

देह की दासता से मुक्ति

 

अपनी बुद्धि में जब हम एक बार निर्णय कर लेते हैं कि जो कुछ दिखायी देता है वह सत्य नहीं है, आत्मा शरीर या प्राण या मन नहीं है, क्योंकि ये उसके रूपमात्र हैं, तब इस ज्ञानमार्ग में हमारा पहला कदम यह होना चाहिये कि हम प्राण और देह के साथ अपने मन के व्यावहारिक सम्बन्ध को ठीक करें, ताकि मन आत्मा के साथ अपने यथार्थ सम्बन्ध को प्राप्त कर सके । यह कार्य एक उपाय के द्वारा सवाधिक सुगमता के साथ किया जा सकता है और उससे हम पहले से ही परिचित हैं, क्योंकि कर्मयोग-विषयक हमारे दृष्टिकोण में उसने बड़ा भाग लिया था, वह है प्रकृति और पुरुष को स्व-अरे से पृथक् कर लेना । ज्ञाता और ईश्वर-रूप पुरुष अपनी कार्यवाहक सचेतन शक्ति की क्रियाओं में आच्छादित हो गया है । परिणामत: शक्ति की इस स्थूल क्रिया को ही जिसे हम शरीर कहते हैं, वह भूल से अपनी सत्ता समझता हैं; वह फ जाता है कि ज्ञाता और ईश्वर-रूप आत्मा ही मेरा निज स्वरूप है । वह समझता है कि मेरा मन और आत्मा शरीर के नियम और क्रिया-कलाप के अधीन हैं । वह भूल जाता है कि इनके अतिरिक्त वह और भी वह बहुत कुछ है जो कि भौतिक रूप की अपेक्षा अधिक महान् है । वह फ जाता है कि मन, वस्तुत: ही, जड़तत्त्व से अधिक महान् है और इसे उसकी तामस- वृत्तियों एवं प्रतिक्रियाओं का तथा उसके जड़ता एवं अक्षमता के अभ्यास का दास नहीं बनना चाहिये । वह भूल जाता है कि वह मन से भी अधिक कुछ है, वह एक ऐसी शक्ति है जो कि मानसिक सत्ता को उसके अपने स्तर से ऊपर उठा ले जा सकती है । वह भूल जाता है कि वह स्वामी और परात्पर है और यह उचित नहीं कि स्वामी अपनी ही क्रियाओं का दास बन जाय तथा परात्पर एक ऐसे रूप में कैद हो जाये जो उसकी अपनी सत्ता में एक क्षुद्र वस्तु के रूप में ही अस्तित्व रखता है । इस सब विस्मृति का प्रतिकार पुरुष को अपने सच्चे स्वरूप का स्मरण करके ही करना होगा और इसके लिये सबसे पहले तो उसे यही स्मरण करना होगा कि शरीर प्रकृति की एक क्रियामात्र है और सो भी अनेक क्रियाओं में से केवल एक क्रिया है ।

 

     तब हम मन से कहते हैं, ''यह प्रकृति की एक क्रिया है, यह न तुम्हारी निज सत्ता है न मेरी, इससे पीछे हटकर स्थित होओ।'' यदि हम यत्न करें तो हमें पता चलेगा कि मन में अनासक्ति की यह शक्ति विद्यमान है और वह केवल विचार में ही नहीं, बल्कि कार्यरूप में और मानो भौतिक वरंच प्राणिक रूप में भी शरीर से पीछे हटकर स्थित हो सकता है । मन की इस अनासक्ति को शरीर की चीजों के

 

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प्रति उदासीनता की एक विशेष वृत्ति के द्वारा दृढ़ करना होगा; इसकी निद्रा या जागरण, गति या विश्राम, दुःख या सुख, स्वास्थ्य या अस्वास्थ्य, शक्ति या क्लान्ति, आराम या कष्ट अथवा खान-पान की हमें कोई खास परवाह नहीं करनी चाहिये । इसका अर्थ यह नहीं कि जहांतक सम्भव हों वहांतक भी, हमें शरीर को ठीक हालत में नहीं रखना चाहिये; हमें उग्र तपस्पाओं में या स्थूल देह की निश्चयात्मक उपेक्षा में भी ग्रस्त नहीं होना होगा । पर साथ ही हमें भूख-प्यास अथवा कष्ट या रोग का अपने मन पर प्रभाव भी नहीं पड़ने देना होगा, न हमें शरीर की चीजों को वैसा महत्त्व ही देना होगा जैसा कि देहप्रधान एवं प्राणप्रधान मनुष्य उन्हें देता है, या फिर, निश्चय ही, इसे एक निरे करण के रूप में बिल्कुल, गौण प्रकार का महत्त्व ही देना होगा; इससे अधिक नहीं । इस करणात्मक महत्त्व को भी इतना नहीं बढ़ने देना होगा कि वह एक आवश्यकता का रूप धारण कर ले; उदाहरणार्थ, हमें यह नहीं सोचना होगा कि मन की पवित्रता हमारे खाने-पीने की चीजों पर निर्भर करती है, यद्यपि एक विशेष अवस्था में खान-पानसम्बन्धी नियम एवं प्रतिबंध हमारी आन्तरिक उन्नति के लिये उपयोगी होते हैं । दूसरी ओर हमें यह भी नहीं समझते रहना चाहिये कि मन या यहां तक कि प्राण का भी खाने-पीने के ऊपर ही जो आधार है वह एक अभ्यास से किंवा इन तत्त्वों (शरीर, प्राण और मन) के बीच प्रकृति के द्वारा स्थापित एक रूढ़ सम्बन्ध से अधिक कुछ है । सच पूछो तो जो भोजन हम ग्रहण करते हैं उसे एक उल्टे अभ्यास एवं नये सम्बन्ध के द्वारा घटाकर कम-से-कम कर सकते हैं और फिर भी मन या प्राण की शक्ति को, बिना किसी प्रकार की कमी के, सुरक्षित रख सकते हैं । इतना ही नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण विकास के द्वारा उन्हें इस प्रकार सधाया जा सकता है कि जिस मानसिक और प्राणिक शक्ति के साथ उनका सम्बन्ध है उनके गुप्त स्रोतों पर भौतिक खाद्य पदार्थों की गौण सहायता की अपेक्षा अधिक निर्भर रहना सीखकर वे एक महत्तर संभाव्य- शक्ति का विकास कर लें । तथापि साधना का यह पक्ष ज्ञानयोग की अपेक्षा आत्मसिद्धि-योग का एक अधिक महत्त्वपूर्ण भाग है; हमारे वर्तमान उद्देश्य के लिये मुख्य बात यह है कि मन को शरीर की चीजों के प्रति आसक्ति या अधीनता का त्याग करना चाहिये ।

 

     इस प्रकार साधना द्वारा अनुशासित होकर मन क्रमश: शरीर के प्रति पुरुष की वास्तविक वृत्ति धारण करना सीख जायेगा । सर्वप्रथम, वह यह जान जायेगा कि मनोमय पुरुष स्वयं शरीर बिल्कुल ही नहीं है, बल्कि शरीर का धारण करनेवाला है; क्योंकि वह उस भौतिक सत्ता से सर्वथा भिन्न है जिसे वह मन के द्वारा प्राण-शक्ति की सहायता से धारण करता है । यह स्थूल शरीर के प्रति हमारी सारी सत्ता की एक सामान्य वृत्ति बन जायेगी, यहांतक कि शरीर हमें इस रूप में अनुभूत होगा कि मानो वह कोई बाहरी चीज है जिसे पहनने की पोशाक की तरह उतारकर

 

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अलग किया जा सकता है अथवा मानो वह एक यन्त्र है जिसे हम अपने हाथ में उठाये हुए हैं । हमें यहां तक अनुभव हो सकता है कि हमारी प्राण-शक्ति एवं हमारे मन की एक प्रकार की आशिक अभिव्यक्ति होने के सिवाय शरीर, एक विशेष अर्थ में, और कुछ भी अस्तित्व नहीं रखता । ये अनुभव इस बात के चिह्न होते हैं कि मन शरीर के सम्बन्ध में एक ठीक सन्तुलित अवस्था प्राप्त कर रहा है, भौतिक सम्वेदन के द्वारा अभिभूत और अधिकृत मन के मिथ्या दृष्टिकोण के स्थान पर वस्तुओं के वास्तविक सत्य का दृष्टिकोण अपना रहा है ।

 

     दूसरे, शरीर की क्रियाओं और अनुभूतियों के सम्बन्ध में, मन यह जान जायेगा कि उसके अन्दर एक पुरुष विराजमान है जो, प्रथम तो, इन क्रियाओं का साक्षी या द्रष्टा है और दूसरे, इन अनुभूतियों का ज्ञाता या अनुभवकर्ता है । वह अपने चिन्तन में इस प्रकार सोचना या सम्वेदन में इस प्रकार अनुभव करना छोड़ देगा कि ये क्रियाएं और अनुभव मेरे हैं, वरन् यों सोचेगा एवं अनुभव करेगा कि ये मेरे नहीं हैं, ये प्रकृति के कार्य-व्यापार हैं जो प्रकृति के गुणों एवं उनकी पारस्परिक क्रिया के द्वारा नियंत्रित होते हैं । इस अनासक्ति को इतना सामान्य बनाया जा सकता है कि मन और शरीर के बीच एक प्रकार का विभाजन उत्पन्न हो जाय और मन शरीर की भूख, प्यास, दर्द, थकान, उदासी आदि का इस प्रकार अवलोकन एवं अनुभव करे मानो ये किसी और व्यक्ति के अनुभव हों, ऐसे व्यक्ति के जिसके साथ इसका इतना निकट सम्बन्ध (rapport) है कि उसके अन्दर जो कुछ भी हो रहा हो उस सबका उसे पता लग जाता है । यह विभाजन आत्म-प्रभुत्व की प्राप्ति का एक महान् साधन एवं महान् पग है; क्योंकि, मन इन चीजों को पहले तो इनसे अभिभूत हुए बिना और अन्त में जस भी प्रभावित हुए बिना, निष्पक्ष भाव से, स्पष्ट समझ पर पूर्ण अनासक्ति के साथ देखने लगता है । यह मनोमय पुरुष की देह की दासता से प्रारम्भिक मुक्ति है, क्योंकि यथार्थ ज्ञान को स्थिरतापूर्वक क्रियान्वित करने से मुक्ति अवश्यमेव प्राप्त होती है ।

 

     अन्त में मन यह जान जायेगा कि मनोमय पुरुष प्रकृति का स्वामी है और इसकी क्रियाओं के लिये उसकी अनुमति आवश्यक है । इसे पता लग जायेगा कि अनुमन्ता के रूप में वह प्रकृति के पुराने अभ्यासों से अपने फ आदेश को वापिस ले सकता है और इस प्रकार अन्त में वह अभ्यास छूट जायेगा अथवा वह पुरुष के संकल्प के द्वारा निर्दिष्ट दिशा में परिवर्तित हो जायेगा; एकदम तो नहीं, क्योंकि जबतक प्रकृति का अतीत कर्म निर्बीज नहीं हो जाता तबतक उसके आग्रहपूर्ण परिणाम के रूप में पुरानी अनुमति अटल रूप से बनी रहती है । और, बहुत कुछ उस अभ्यास की शक्ति पर तथा मन ने पहले उसके साथ मूलभूत आवश्यकता का जो विचार जोड़ रखा था उसपर भी निर्भर करता है । परशु यदि वह उन मूल अभ्यासों में से न हो जिन्हें प्रकृति ने मन, प्राण और शरीर के पारस्परिक सम्बन्ध के

 

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लिये स्थापित कर रखा है और यदि मन पुरानी अनुमति को नये सिरे से संपुष्ट न करे या वह स्वेच्छापूर्वक उस अभ्यास में आसक्त न रहे, तो अन्त में परिवर्तन होने लगेगा । यहांतक कि भूख-प्यास की आदत को भी कम किया जा सकता है, रोका एवं त्यागा जा सकता है; इसी प्रकार बीमार पड़ने की आदत को भी कम किया जा सकता है तथा क्रमश: दूर किया जा सकता है और इस बीच प्राण-शक्ति के सचेतन प्रयोग या केवल मन के आदेश के द्वारा शरीर की गड़बड़ियों को ठीक करने की मन की शक्ति अत्यधिक बढ़ जायेगी । एक ऐसी ही प्रक्रिया के द्वारा उस आदत को भी, जिसके द्वारा शारीरिक प्रकृति में कुछ विशेष प्रकार के तथा बड़े प्रमाणवाले कार्यों के बारे में आयास, थकान, तथा असमर्थता का विचार पैदा होता है, सुधारा जा सकता है और इस शरीररूपी यन्त्र के द्वारा हो सकनेवाले भौतिक या मानसिक कार्य की शक्ति, स्वतन्तता, तीव्रता और प्रभावशालिता को अद्भुत रूप में बढ़ाया जा सकता है, दुगुना, तिगुना, दसगुना किया जा सकता है ।

 

     साधन-प्रणाली का यह पक्ष वास्तव में आत्मसिद्धि-योग का भाग है; परन्तु इन चीजों के बारे में यहां भी संक्षेप से वर्णन करना अच्छा होगा, एक तो इसलिये कि इससे हम पूर्णयोग के एक अंग-आत्मसिद्धि-की आगे आनेवाली व्याख्या का आधार रखते हैं और, दूसरे, इसलिये कि हमें जड़वादी विज्ञान के द्वारा प्रसारित मिथ्या धारणाओं को संशोधित करना है । इस विज्ञान के अनुसार सामान्य मानसिक और भौतिक अवस्थाएं तथा हमारे अतीत के विकास के द्वारा स्थापित किये हुए मन और शरीर के वर्तमान यथार्थ सम्बन्ध ही ठीक, स्वाभाविक और स्वस्थ अवस्थाएं हैं और अन्य कोई भी चीज, इनकी विरोधी कोई भी चीज या तो विकृत एवं असत्य है या फिर भ्रम, आत्म-प्रतारण एवं उन्माद । कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वयं विज्ञान भी इस अनुदार सिद्धान्त की पूर्णतया अवहेलना करता है जब कि वह प्रकृति पर मनुष्य के महत्तर प्रभुत्व की प्राप्ति के लिये भौतिक प्रकृति की सामान्य क्रियाओं में इतने परिश्रम के साथ तथा सफलतापूर्वक सुधार करता है । यहां एकबारगी ही यह कह देना काफी होगा कि मानसिक और भौतिक अवस्था के तथा मन और शरीर के पारस्परिक सम्बन्धों के जिस परिवर्तन से हमारी सत्ता की पवित्रता एवं स्वतन्त्रता में वृद्धि होती है, प्रसार एवं शान्ति प्राप्त होती है और मन की अपनेपर तथा भौतिक व्यापारों पर प्रभुत्व रखने की शक्ति बढ़ती है, संक्षेप में, जिससे मनुष्य को अपनी प्रकृति पर महत्तर प्रभुत्व प्राप्त होता है वह, स्पष्ट ही, कोई विकृत वस्तु नहीं है और न उसे भ्रान्ति या आत्म-वंचना ही समझा जा सकता है, क्योंकि उसके परिणाम प्रत्यक्ष और सुनिश्चित हैं । वास्तव में, वह व्यक्ति को विकसित करने की प्रक्रिया में एक स्वेच्छाकृत प्रगतिमात्र है; वह विकास तो प्रकृति हर हालत में साधित करेगी, पर उसमें वह मनुष्य के संकल्प को अपने मुख्य करण के रूप में प्रयुक्त करना पसन्द करती है, क्योंकि उसका मूल लक्ष्य है- पुरुष को उसके ऊपर सचेतन प्रभुत्व प्राप्त करने की ओर ले जाना ।

 

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     यह सब कह चुकने के बाद हमें इतना और कहना होगा कि ज्ञानमार्ग की प्रक्रिया में मन और शरीर की पूर्णता का महत्त्व बिल्कुल ही नहीं है या केवल गौण ही है । एकमात्र आवश्यक वस्तु है-जो भी सबसे तीव्र या फिर सबसे समग्र एवं प्रभावशाली विधि सम्भव हो उसके द्वारा प्रकृति से ऊपर उठकर आत्मातक पहुंचना; और जिस विधि का हम वर्णन कर रहे हैं वह चाहे सबसे तीव्र तो नहीं है फिर भी अपनी प्रभावशालिता में सबसे अधिक समग्र अवश्य है । और, यहां भौतिक कर्म करने या न करने का प्रश्न उठ खड़ा होता है । साधारणतया यह माना जाता है कि योगी को यथासम्भव कर्म से पराड़्मुख हो जाना चाहिये और विशेषकर यह कि अत्यधिक कर्म योग में बाधक होता है, क्योंकि यह शक्तियों को बाहर की ओर खींचता है । कुछ अंश में यह बात ठीक भी है; और हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि जब मनोमय पुरुष केवल साक्षी और द्रष्टा की वृत्तिधारण कर लेता है तब नीरवता, एकान्तवास, भौतिक निश्चलता और शारीरिक निष्क्रियता की प्रवृत्ति हमारी सत्ता पर अधिकार कर लेती है । जबतक यह जड़ता से, काम करने की अक्षमता या अनिच्छा से, संक्षेप में, तमोगुण की वृद्धि से सम्बद्ध नहीं है तबतक यह सब लाभकारक ही है । कुछ भी न करने की शक्ति जो आलस्य, अक्षमता या कर्म करने के प्रति घृणा और अकर्म के प्रति आसक्ति से सर्वथा भिन्न वस्तु है, एक महान् शक्ति एवं महान् प्रभुत्व है; कर्म से पूर्णतया विरत होकर रहने की शक्ति ज्ञानयोगी के लिये उतनी ही आवश्यक है जितनी कि विचार का पूर्णतया निरोध करने की शक्ति, अनिश्चित काल के लिये केवल एकान्त्त और नीरवता में रहने की शक्ति और अचल रूप में शान्त रहने की शक्ति । जो कोई इन अवस्थाओं का आलिंगन करने के लिये इच्छुक नहीं है वह अभी उच्चतम ज्ञान की ओर ले जानेवाले मार्ग के योग्य नहीं है; जो व्यक्ति इनके समीप पहुंचने में असमर्थ है वह अभी उस ज्ञान की प्राप्ति का अधिकारी नहीं है ।

 

     इसके साथ-साथ यह भी कह देना आवश्यक है कि कर्म से विरत होने की शक्ति ही काफी है; समस्त भौतिक कर्म से विरत हो जाना आवश्यक नहीं है, मानसिक किंवा शारीरिक कर्म के प्रति घृणा वांछनीय नहीं है, ज्ञान की समग्रता के अभीप्सु को जहां कर्म के प्रति आसक्ति से मुक्त होना चाहिये वहां अकर्म के प्रति आसक्ति से भी उसी प्रकार मुक्त होना चाहिये । विशेषकर मन या प्राण या शरीर की निरी जड़ता की हर एक प्रवृत्ति पर विजय पानी होगी, और यदि ऐसी आदत प्रकृति पर अपना प्रभुत्व जमाती प्रतीत हों तो पुरुष के संकल्प का प्रयोग करके उसे त्याग देना होगा । अन्त में एक ऐसी अवस्था आ जाती है जब प्राण और शरीर केवल यन्त्र बनकर मनोमय पुरुष के संकल्प को पूरा करते हैं पर वैसा करने में न तो उनपर कोई जोर पड़ता है और न वे उसमें आसक्त होते हैं, न ही वे एक हीनतर, आतुर और प्रायः ही उत्तेजनात्मक शक्ति के साथ अपने-आपको कर्म में

 

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झोंकते हैं जो कि उनका काम करने का साधारण ढंग है । तब वे प्रकृति की शक्तियों की ही तरह कार्य करने लगते हैं - बिना उद्वेग के, बिना किसी श्रम और प्रतिक्रिया के जो सब कि भौतिक सत्ता पर प्रभुत्व न रखनेवाले देहबद्ध प्राण के विशेष लक्षण हैं । जब हम पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं, तब कर्म करने और न करने का कोई महत्व नहीं रहता, क्योंकि उनमें से कोई भी अन्तरात्मा की स्वतकता में हस्तक्षेप नहीं करता, न वह परम आत्मा को प्राप्त करने के इसके आवेग से या परम आत्मा में इसकी समस्थिति से इसे विचलित ही कर सकता है । परन्तु पूर्णता की यह अवस्था योग में बहुत आगे जाकर ही प्राप्त होती है और तबतक गीता द्वारा प्रतिपादित युक्ताहार-विहार का सिद्धान्त ही हमारे लिये सर्वश्रेष्ठ है; अतएव, मानसिक या शारीरिक कर्म की अति अच्छी नहीं है, क्योंकि अति हमारी बहुत अधिक शक्ति को बाहर खींच ले जाती है और हमारी आध्यात्मिक अवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है;  उधर, कर्म में बहुत अधिक कमी कर देना भी अच्छा नहीं, क्योंकि कमी करने से अकर्मण्यता की आदत पड़ जाती है और यहांतक कि अक्षमता भी पैदा हो जाती है जिन्हें जीतने में पीछे काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है । फिर भी, पूर्ण स्थिरता, एकान्त्तवास और निष्कर्मता के अवसर परम वांछनीय हैं और उन्हें जितनी भी बार सम्भव हो प्राप्त करना चाहिये, ताकि अन्तरात्मा अपने अन्दर गहराई में जा सके जो कि ज्ञान-प्राप्ति की अनिवार्य शर्त है |

 

     देह (की दासता) की इस प्रकार चर्चा करते हुए प्राण या जीवन-शक्ति की चर्चा करना भी हमारे लिये आवश्यक हो जाता है । कारण, व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये हमें शरीर में कार्य करनेवाली प्राण-शक्ति, स्थूल प्राण, और मानसिक क्रियाओं की सहायता के लिये कार्य करनेवाली प्राण-शक्ति, चैत्य प्राण, में भेद करना होगा । क्योंकि, हम सदा ही द्विविध जीवन बिताते हैं, मानसिक और शारीरिक, और एक ही प्राण-शक्ति इनमें से जिस एक या दूसरे की सहायता करती है उसके अनुसार भिन्न प्रकार से कार्य करती है तथा भिन्न रूप धारण कर लेती है । शरीर में यह भूख, प्यास, थकान, स्वास्थ्य, रोग और भौतिक बल-उत्साह आदि की वे प्रतिक्रियाएं पैदा करती है जो स्थूल देह की प्राणिक अनुभूतियां हैं । क्योंकि, मनुष्य का स्थूल शरीर पत्थर या मृत्पिंड जैसा नहीं है; यह दो कोषों, ''प्राणमय'' और '' अन्नमय '' कोषों, के संयोग से बना है और इसका जीवन दोनों की सतत परस्पर क्रिया हे । फिर भी प्राण-शक्ति और स्थूल देह दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं और जैसे-जैसे मन ग्रस्तकारी देहात्मबुद्धि से पीछे हटता जाता है वैसे-वैसे हम प्राण से तथा शरीररूपी यन्त्र में इसकी क्रिया से अधिकाधिक सज्ञान होते जाते हैं और इसकी क्रियाओं का निरीक्षण तथा अधिकाधिक नियन्त्रण कर सकते हैं । व्यवहारतः शरीर से पीछे हटने में हम स्थूल प्राण-शक्ति से भी पीछे हटते हैं, यद्यपि हम इन

 

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दोनों में भेद करते हैं और प्राण को निरे स्थूल यन्त्र की अपेक्षा अपनी सच्ची सत्ता के अधिक निकट अनुभव करते हैं । वास्तव में, शरीर के ऊपर पूर्ण विजय स्थूल प्राण-शक्ति के ऊपर विजय से ही प्राप्त होती है ।

 

     शरीर और उसके कार्यों के प्रति आसक्ति के ऊपर विजय प्राप्त करने के साथ ही देहबद्ध प्राण के प्रति आसक्ति पर भी विजय प्राप्त हो जाती है । क्योंकि, जब हम यह अनुभव करते हैं कि स्थूल देह हमारा अपना स्वरूप नहीं है, बल्कि केवल हमारा वस्त्र या यन्त्र है तब शरीर की मृत्यु से जुगुप्सा की वृत्ति जो प्राणप्रधान मनुष्य में इतनी तीव्र एवं प्रबल होती है अनिवार्यत: ही दुर्बल पड़ जाती है तथा बाहर निकाल फेंकी जा सकती है । इसे निकाल ही फेंकना होगा तथा पूर्ण रूप से निकाल फेंकना होगा । मृत्यु का भय और देह-नाश से तीव्र घृणा एक ऐसा कलंक है जो मनुष्य पर, पशुजाति में से उसका विकास होने के कारण, लगा रह गया है । इस कलंक के टीके को पूर्ण रूप से मिटा देना होगा ।

 

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